Monday 24 February 2014

गौमुखी व सिंहमुखी भूखण्ड की भ्रांतियाँ

एक बार एक सज्जन से कुछ लोगो को मेंने कहते हुए सुना की निवास हेतु गोमुखी व व्यापार हेतु सिंहमुखी भूखण्ड शुभ होते हैं। उन दिनो में वास्तु कि प्रेक्टिस किया करता था। कोतुहलवश मेने उन लोगो से इसका कारण पुछा तो उन्होंने बताया कि गोमुखी भुखण्ड का आगें का भाग पीछे कि तुलना मे छोटा होता हैं। चित्र ए के अनुसार फलत: घर खर्च मे कमी आती हैं साथ ही यहाँ निवास करने वाला व्यक्ति मितव्ययी नही होता हैं। सिंहमुखी भुखण्ड में आगें का भाग पीछे की तुलना में बडा होता हैं। चित्र बी के अनुसार फलत: व्यापार करने पर लोगो की आवक बनी रहती हैं। लाभ बढता हैं।

                         
यह बात मेंरी समझ में नही आई कि जब ओर तो गोमुखी भुखण्ड में रहने पर खर्चे घटते हैं वही इसके विपरीत सिंहमुखी भुखण्ड में निवास करने वाले व्यक्ति को तो मितव्ययी होना चाहिये। परिणाम स्वरूप लाभ कि जगह हानि होनी चाहिए।

हम सभी जानते हैं कि वास्तुपूरुष कि कल्पना वर्गाकार रूप में कि जाती हैं। साथ ही सम्पूर्ण भूखण्ड में इनकी सत्ता व्याप्त होती हैं। यही कारण भी हैं कि भूखण्डो के आकार में शुभता की श्रेणी में पहला स्थान वर्गाकार भुखण्ड का ही हैं (वर्गाकार  भुखण्ड शुभ होते हैं या नही आज के परिपेक्ष में इसकी चर्चा हम अगले किसी भाग में करेंगें)

                            
चित्र ए1 अनुसार गोमुखी भुखण्ड या चित्र बी1 के अनुसार सिहंमुखी भूखण्ड में हम जब वास्तुपूरुष की कल्पना करेगें तो किन्ही दो कोणो का कटान व दो कोणो का विस्तार देखने को मिलेगा। भूखण्ड के किसी भी कोण का विस्तार व कटान हानि व कष्टो को बढाने वाला होता हैं। केवल ईशान कोण का विस्तार व भी अपेक्षित मात्रा में लाभ को बढाने वाला होता हैं।
                           
मान लिजिए कि कोई उत्तरमुखी गोमुखी भूखण्ड हैं। इस स्थिती में चित्र ए1 के अनुसार भूखण्ड का वायव्य कोण व ईशान कोण कट जाऐगें व साथ ही नैऋ त्य कोण व अग्रिकोण बढ जाऐगें। 

ईशान कोण में वास्तुपुरुष का सिर होता हैं। यदि भुखण्ड में वास्तुपुरुष का सिर ही नही होगा तों वहाँ निवास करने वाले व्यक्ति कभी भी सफलता अर्जित नही  कर पाऐगें। कभी किसी भी बात पर एक मत नही होगें। पुत्र पिता से व पत्नी अपने पति की बातो का विरोध करते हुए मिलेगें। गृहस्वामी हमेशा इस बात से पीडित रहेगा की कोइ्र्र उसकी बात नही मानते हैं। अनिर्णय, प्रसिद्धी का नाश, गृहस्वामी की संतान का अलग से घर बसा लेना की प्रवृति धीरे-धीरे घर को पतन की ओर ले जाती हैं। अग्रिकोण का विस्तार भी हानि देता हैं। अल्पपुत्रता, डिहाईड्रेशन, किडनी फेल व औद्योगिक पतन आदि। बढी हुई अग्रि की तीव्रता वहा निवास करने वाले व्यक्ति के स्वभाव में देखने को मिलती हैं। जो एक दिन पतन का कारण बनती हैं।

ठीक दूसरी तरफ वायव्यकोण का कटान हो रहा हैं। वायव्यकोण के देवता राहु  व वायव्यकोण से ठीक पश्चिम दिशा मध्य के बीच का चंद्रमा का स्थान हैं। साथ ही वायव्यकोण में रोग नाम के देवता का स्थान हैं। फलत: पागलपन, डिप्रेशन, दूषित विचारधारा, वायुजनित रोग, संक्रमण आदि परिणाम धीरे-धीरे गृहस्वामी या वहाँ निवास कर रहें लोगो को सताने लगती हैं।

नैऋत्यकोण का विस्तार भी हो रहा हैं इस भूखण्ड में हो रहा हैं। नैऋत्यकोण का विस्तार यदि पश्चिम दिशा से हो रहो हो तो कानूनी विवाद, दुर्घटनाएं, संतान का किसी भी क्षेत्र में सफल न होना, संस्था में वित्तिय घाटा आदि परिणाम प्राप्त होतें हैं। कोई भी संस्था यदि ऐसे भूखण्ड पर चल सफलता पूर्वक चल रही हो तो भी यह समझना चाहिये कि अगले कुछ वर्षो में उस संस्था का पतन निश्चित हैं।

अत: सिंहमुखी व गोमुखी दोनो ही प्रकार के भूखण्ड वास्तु के दृष्टिकोण से शुभ नही होतें हैं।